24 September 2021

अष्टबंधन संप्रोक्षणम

  देव प्रतिमा के आसंजन की वैदिक विधि


पारम्परिक रूप से मंदिर की देव प्रतिमा को उसके आधार से प्राकृतिक पदार्थो से बने गोंद द्वारा चिपका कर प्रतिस्थापित किया जाता है.
इस गोंद (अष्टबंधन) को बनाने की प्रक्रिया जटिल, लम्बी और श्रमसाध्य होती है.
अष्टबंधन से देव प्रतिमा को उसके आधार से जोड़कर बिठाने की प्रक्रिया को 'अष्टबंधन संप्रोक्षणम' कहते है.
यह अष्टबंधन आठ पदर्थो को मिलाकर बनाया जाता है, यह पदार्थ है...
🔸 शंख
🔸 माजूफल के बीज
🔸 मुहर लगाने वाला मोम
🔸 आंवला
🔸 चीड़ वृक्ष की राल
🔸 त्रिवेणी संगम की मिटटी
🔸 त्रिवेणी संगम के कंकड़, और
🔸कपास
इन अष्ट अवयवों को विधिपूर्वक एकत्रित करके निश्चित मात्रा में मिलाया जाता है. कपास को प्रक्रिया के अंतिम चरण में मिलाते है.
इस सभी अवयवों में अपनी स्वयं की लसलसी संगतता होती है,
इसके मिश्रण को लगभग 15 किलो के इमली की लकड़ी से बने हथोड़ो से इमली की लकड़ी के लट्ठे पर रखकरर 41 दिनों तक पीट पीटकर एकसार किया जाता है.
हथोड़े की चोट का आघात और उससे उत्पन्न ऊष्मा इस मिश्रण को एक गाढ़े, चिपचिपे, मोम जैसे लचीले और कोमल गारे में परिवर्तित कर देती है, इसी अष्टबन्धन का उपयोग मूर्ति की स्थापना में होता है जो अत्यंत मजबूती से प्रतिमा को आधार से जोड़े रखता है.
जब अभिषेक का जल अष्टबंधन से होकर बहता है तो औषधियुक्त हो जाता है, जिसका भक्तजन आचमन करते है.
अष्टबंधन के निर्माण की प्रक्रिया में समाज के हर वर्ग और आयु के लोग सहयोग करते है. प्रत्येक 12 वर्षो के उपरांत इस प्रक्रिया (पुनःवर्तम) की पुनरावृत्ति की जाती है.
अष्टबंधन में स्वर्ण का प्रयोग करने से इसके पुनःवर्तम की अवधि 100 वर्षो की हो जाती है.
वर्तमान में समय और धन के आभाव के कारण संप्रोक्षणम अनुष्ठान का पालन बड़े मंदिरो में ही संभव हो पा रहा है.
सनातन धर्म के अनुसार मंदिर निर्माण में देव प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा, कुम्भाभिषेक आदि के नियत विधान है जो वैज्ञानिकता से परिपूर्ण है.
यही सनातन की सुंदरता है.

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