26 January 2021

Constitution सम+विधान

बहुत कमियां हैं इस भारतीय संविधान में...


भारतीय संविधान एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण करता है जिसमें ठीक-ठीक काम कर रहे लोगों पर तो अनेक अनावश्यक कानून लादकर उन्हें गुलाम सरीखा रखने की कोशिश करता है जबकि कानून तोड़ने वाले अपराधियों-आतंकवादियों के लिए ऐसे उच्च मानवाधिकार का संदेश देता है कि वे आसानी से न पकड़े जाते हैं न ही सजा पाते हैं।

 

राज्य के अधिकतम तथा समाज के न्यूनतम अधिकारों की सीमाएं निश्चित करने वाले दस्तावेज को संविधान कहते हैं। संविधान राज्य और समाज के बीच एक द्विपक्षीय समझौता है। संविधान के चार आवश्यक गुण माने जाते हैं, पहला- स्पष्ट भाषा, दूसरा- स्पष्ट निष्कर्ष, तीसरा- छोटा (संक्षिप्तता) व चौथा- संतुलन। भारतीय संविधान के परिप्रेक्ष्य में आइए इन चारों गुणों की हम व्यापक समीक्षा करें।

 

स्पष्ट भाषा- भारतीय संविधान की भाषा पूरी तरह द्विअर्थी है। संविधान के अनेक अनुच्छेद ऐसे हैं जिनके हाईकोर्ट कुछ भिन्न अर्थ निकालता है और सुप्रीमकोर्ट भिन्न। सुप्रीमकोर्ट के अर्थ भी फुल बेंच में जाकर बदल जाते हैं और कई बार तो फुल बेंच का निर्णय भी एक दो के बहुमत से ही हो पाता है। संदेह होता है कि यदि कोई और ऊपर का कोर्ट होता तो यह निर्णय पलट भी सकता था। अपवाद स्वरूप कभी ऐसा होता तो कोई बात नहीं थी, किंतु यदि ऐसी अर्थ अस्पष्टता जगह-जगह हो तो यह तो संविधान का दोष ही माना जाएगा। संविधान के इस दोष के कारण किसी निष्कर्ष पर पहुंचने की अपेक्षा अनावश्यक तर्क-कुतर्क की प्रवृत्ति को ही प्रोत्साहन मिलता है।

 

स्पष्ट निष्कर्ष- यह जरूरी है कि संविधान का संदेश साफ हो अर्थात संविधान बनाने वालों के निष्कर्षों के संकेत बिल्कुल साफ हों। भारतीय संविधान की अनेक धाराएं एक दूसरे के निष्कर्षों को काटती हुई प्रतीत होती हैं। कई धाराओं में तो उसका मूल स्वरूप ही ‘किंतु’ शब्द के बाद बदल जाता है। संविधान की एक मुख्य धारा में लिखा है कि भारत में किसी भी व्यक्ति के साथ धर्म, जाति, भाषा या लिंग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होगा। उसी धारा में किंतु लगाकर पूरे अर्थ को बदल दिया गया है जिसके अनुसार महिलाओं, अल्पसंख्यकों, पिछड़ों, बच्चों के लिए विशेष कानून बनाए जा सकते हैं। भाषा का सामान्य सिध्दांत है कि अपवाद का प्रभाव मुख्य विचार का एक दो प्रतिशत ही हो सकता है। अपवाद हमेशा किंतु के बाद लगता है। इस धारा का प्रभाव संपूर्ण आबादी के नब्बे प्रतिशत पर पड़ता है। महिलाएं ही आधी आबादी में शामिल हैं। फिर अपवाद न होकर यह धारा तो उद्देश्य विहीन हो गई है। किंतु लगाकर पूरा अर्थ बदलने का कारनामा कई जगह हुआ है। संविधान की उद्देशिका में अवसर की समानता शब्द लिखा गया है किंतु बाद में उसका अर्थ बदल दिया गया है। और भी अनेक धाराएं हैं जो किंतु-परंतु के बाद अपना अर्थ बदल देती हैं।

 

छोटा संविधान- संविधान और कानून बिल्कुल भिन्न-भिन्न तरीके से लिखे जाते हैं। संविधान राज्य के अधिकतम तथा समाज के न्यूनतम अधिकारों की सीमाएं तय करता है और कानून राज्य के न्यूनतम तथा समाज के अधिकतम अधिकारों की सीमाएं तय करता है। स्वाभाविक है कि संविधान बहुत छोटा होना चाहिए और कानून व्यापक संदर्भों वाला। भारतीय संविधान बनाते समय उसमें अनेक ऐसी अनावश्यक बातें शामिल की गईं जो कानून के अंतर्गत थीं। ऐसी कानून की बातों को संविधान में शामिल करने से संविधान का आकार बढ़ता गया और वह वकीलों का स्वर्ग बन गया। संविधान में नीति निर्देशक तत्वों का समावेश तो किया गया किंतु न तो उन्हें बाध्यकारी बनाया गया और न ही राज्य को उनके लिए उत्तरदायी बनाया गया। कोई भी सलाह संविधान का भाग नहीं हो सकती क्योंकि सलाह बाध्यकारी नहीं हुआ करती।

 

इन दो धाराओं ने समाज का लाभ तो कम और नुकसान बहुत ज्यादा किया। इन दो धाराओं ने राज्य के, समाज के हर मामले में हस्तक्षेप करने के अनगिनत द्वार खोल दिए और राज्य को जनहित की मनमानी व्याख्या का अधिकार भी दे दिया। अब राज्य जब चाहे तब शराबबंदी को भी जनहित घोषित कर सकता है और शराब चालू करने को भी। राज्य जब चाहे तब विवाह की उम्र घटा भी सकता है और बढ़ा भी सकता है क्योंकि उसके परिणामों के उत्तरदायित्व के प्रति वह निश्चिंत है। संविधान बड़ा बनाने के चक्कर में उसका स्वरूप ही बदलता चला गया।

 

संतुलित संविधान- समाज और राज्य एक दूसरे के पूरक भी होते हैं और नियंत्रक भी। यह दोहरी भूमिका ठीक-ठीक संचालित होती रहे ऐसी भूमिका संविधान की होती है जो दोनों के बीच में होता है। पूरक होना दोनों का कर्तव्य होता है और नियंत्रण अधिकार। व्यवस्था में राज्य की परिभाषा में न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका का समन्वित स्वरूप होता है न कि विधायिका का अकेले का। ऐसी समन्वित व्यवस्था भी नियम-कानून से ही चल सकती है। व्यक्ति पर कानून का नियंत्रण होता है, कानून पर सरकार का, सरकार पर संसद का, संसद पर संविधान का। स्पष्ट है कि व्यवस्था के सुचारु संचालन का दायित्व संविधान का होता है क्योंकि तानाशाही में शासन का संविधान होता है और लोकतंत्र में संविधान का शासन। कानून, सरकार, संसद और संविधान की आवश्यकता उन व्यक्तियों या इकाईयों पर अंकुश के लिए नहीं होती जो स्वयं अनुशासित हैं। इन सबकी आवश्यकता सिर्फ ऐसी इकाइयों पर अंकुश के लिए है जो ऐसे नियम-कानूनों के विपरीत आचरण करते हैं। संविधान की सफलता-असफलता की एक प्रमुख कसौटी है कि वह किस सीमा तक ऐसी उच्छृंखलता को रोकने में समर्थ है।

 

संविधान के संतुलन की यह एकमात्र कसौटी मानी जाती है कि वह न तो इतना कड़ा हो कि समाज स्वयं को राज्य का गुलाम महसूस करने लगे और न ही इतना लचीला हो कि कुछ लोग अनियंत्रित हो जाएं। भारतीय संविधान इन दोनों स्थितियों से हटकर एक तीसरी स्थिति में है जो ठीक-ठीक काम कर रहे लोगों पर तो अनेक अनावश्यक कानून लादकर उन्हें गुलाम सरीखा रखने की कोशिश करता है जबकि कानून तोड़ने वाले अपराधियों- आतंकवादियों के लिए ऐसे उच्च मानवाधिकार का संदेश देता है कि वे आसानी से न पकड़े जाते हैं न ही सजा पाते हैं। जिनके लिए कठोर कानून की जरूरत थी उनके लिए लचीलापन और जिनके लिए कोई कानून आवश्यक नहीं था उनके लिए कठोर कानूनों का संदेश। यदि राज्य ऐसी गलती करता है तो राज्य पर नियंत्रण करना संसद का काम है और यदि संसद भी अपना काम नहीं करती तो यह दायित्व संविधान का है। लोकतंत्र में एक चैनल बना होता है जिसके सबसे ऊपर की कड़ी है संविधान। यदि नीचे की कोई कड़ी उच्छृंखल होती है तो उसका संपूर्ण दायित्व संविधान का है। दुर्भाग्य से संविधान ही संतुलित न होकर विपरीत संतुलन वाला है तो परिणाम तो विपरीत होने ही हैं।

 

ऊपर के मुख्य आधारों के अतिरिक्त भी हम संविधान की व्यापक समीक्षा करें तो संविधान में निम्नलिखित कमियां साफ दिखायी देती हैं-

 

केंद्रित स्वरूप- दुनिया में चार प्रकार के संविधानों की कल्पना है। लोकतांत्रिक, साम्यवादी, धर्मवादी व लोकस्वराज्य वादी। लोकतांत्रिक संविधान पश्चिमी देशों में लागू है। इस विधि में व्यक्ति सर्वाधिक महत्तवपूर्ण होता है और व्यक्ति स्वातंत्रय की सुरक्षा संविधान की मूल अवधारणा मानी जाती है। इन देशों में न्याय की अवधारणा यह है कि चाहे दस अपराधी भले ही छूट जाएं किंतु एक भी निरपराध सजा न पाए। इस अतिवादी अवधारणा का ही परिणाम है कि इन देशों में धीरे-धीरे आतंकवाद और अव्यवस्था जोर पकड़ रही है। साम्यवादी व्यवस्था में राज्य सर्वशक्ति संपन्न होता है और व्यक्ति, धर्म तथा समाज गौण। ऐसे देशों में राज्य ही स्वयं को समाज घोषित कर देता है।

 

यहां न्याय की भी परिभाषा बदल जाती है। इन देशों में व्यक्ति का कोई अस्तित्व नहीं होता। इनमें सिर्फ नागरिक ही होते हैं जिन्हें कानूनी अधिकार तो होते हैं किंतु मौलिक अधिकार नहीं। तीसरी व्यवस्था मुस्लिम देशों की है जहां धर्म सर्वशक्तिमान होता है और समाज राज्य तथा व्यक्ति गौण। इन देशों में न्याय की कुछ ऐसी अवधारणा है कि धार्मिक अपराध करने वालों को भीड़ भी दंड दे सकती है। यहां भी व्यक्ति के कोई मौलिक अधिकार नहीं होते। सब कुछ धर्म को ही केंद्र में रखकर चलता है। एक चौथी व्यवस्था भारतीय संस्कृति की है जिसमें समाज सर्वोच्च है और व्यक्ति धर्म तथा राज्य गौण। इसमें राज्य मैनेजर होता है और समाज मालिक। न्याय व्यवस्था ऐसी होती है कि न कोई अपराधी छूटे न कोई निरपराध दंडित हो। न्याय और सुरक्षा के अतिरिक्त सभी दायित्व परिवार, गांव, जिले, प्रदेश और केंद्र की सामाजिक इकाइयों के पास विकेंद्रित होते हैं। इनमें राज्य का कोई हस्तक्षेप नहीं होता। व्यक्ति को मौलिक अधिकार होते हैं।

 

आदर्श स्थिति तो यह होती कि भारतीय संविधान इस चौथे मार्ग को अपनाता किंतु वह तो इतना विकृत हुआ कि शेष तीन के विषय में भी कोई स्पष्ट स्वरूप तय नहीं कर सका। भारतीय संविधान ने पश्चिम का व्यक्ति स्वातंत्रय भी शामिल कर लिया और साम्यवाद का अधिकतम हस्तक्षेप भी। किंतु भारतीय संविधान ने अपनी व्यवस्था से समाज को पूरी तरह बाहर कर दिया। परिवार और गांव शब्द तो संविधान में शामिल ही नहीं हैं। जिला भी शामिल है तो शासित संदर्भ में। प्रदेश और केंद्र ने समाज के सारे अधिकार स्वयं में समेट कर तंत्र पर ऐसा कब्जा किया कि लोक बेचारा गुलाम हो गया। भारतीय प्रणाली का संविधान भारत में बने, इसके लिए लगातार संघर्ष जारी है।

 

वर्ग निर्माण- सामाजिक दृष्टि से दुनिया में दो ही वर्ग होते हैं, पहला सामाजिक व दूसरा समाज विरोधी। पहले वर्ग को दूसरे वर्ग से सुरक्षा और न्याय प्रदान करना राज्य का दायित्व होता है जिसकी सीमाएं संविधान द्वारा घोषित होती हैं। भारतीय संविधान ने समाज को आठ खंडों- (1) धर्म (2) जाति (3) भाषा (4) क्षेत्रीयता (5) उम्र (6) लिंग (7) गरीब-अमीर (8) उपभोक्ता- उत्पादक में विभाजित करके न केवल वर्ग निर्माण की छूट ही दी बल्कि उसे प्रोत्साहित भी किया। परिणाम हुआ कि समाज में वर्ग संघर्ष मजबूत हुआ और सामाजिक समाजविरोधी के खांचे में संपूर्ण समाज को देखने की भावना कमजोर होती चली गई। आज भारत के सभी राजनैतिक दल भारतीय संविधान की मूल भावना के अनुरूप आठों आधारों पर पूरी ईमानदारी से वर्ग निर्माण, वर्ग विद्वेष, वर्ग संघर्ष के लिए सक्रिय हैं।

 

संसद सर्वोच्च- भारतीय संविधान राज्य और समाज के बीच एक द्विपक्षीय समझौता होता है। संसद संविधान के प्रावधानों के अनुसार निर्णय करने के लिए बाध्य है। संसद अनुसरण करती है किंतु भारतीय संविधान संसद को ही संविधान संशोधन का पूरा अधिकार सौंपकर पूरी अवधारणा को पलट देता है। प्रश्न स्वाभाविक ही है कि संसद सर्वोच्च है या संविधान। संपूर्ण भारत में राजनेताओं ने एक भ्रम फैलाने में सफलता पा ली है कि संसद ही समाज का प्रतिनिधित्व करती है। सच्चाई बिल्कुल उलट है कि संविधान ही समाज का प्रतिनिधित्व करता है और संसद ऐसे समाज द्वारा बनाए गए संविधान का अनुसरण करती है।

 

इसका अर्थ यह हुआ कि संविधान में संशोधन या तो समाज कर सकता है या समाज और राज्य मिलकर। राज्य तो अकेले कर ही नहीं सकता। भारतीय संविधान में संविधान संशोधन का अधिकार संसद को देना तो पूरी तरह राजनैतिक घपला है जो चोरी छिपे संसद को सर्वोच्च बनने की प्रेरणा देता है तथा संविधान को संसद का पिछलग्गू बना दिया जाता है। बीच में अवश्य ही न्यायपालिका ने अपने बहुमत फैसले से संसद की उच्छृंखलता पर आंशिक रोक लगाते हुए निर्णय दिया कि संसद संविधान के मूल स्वरूप में परिवर्तन नहीं कर सकती। मेरे विचार में न्यायपालिका ने जबरदस्ती ही इस स्वेच्छाचारिता पर अंकुश लगाया है। अन्यथा संविधान निर्माताओं ने तो संसद को सर्वोच्च बनाने के सारे अधिकार संविधान में डाल ही दिए थे।

 

मूल अधिकार की अस्पष्ट व्याख्या- किसी भी लोकतांत्रिक संविधान में व्यक्ति और नागरिक पृथक-पृथक होते हैं। व्यक्ति वे होते हैं जिनके पास मूल अधिकार तो होते हैं किंतु संवैधानिक अधिकार नहीं। नागरिक को दोनों ही अधिकार प्राप्त होते हैं। मूल अधिकार वे प्राकृतिक अधिकार होते हैं जिनमें राज्य सहित कोई भी अन्य इकाई किसी भी परिस्थिति में तब तक कोई कटौती नहीं कर सकती जब तक उस व्यक्ति ने किसी अन्य के वैसे ही अधिकारों में कटौती न की हो। मूल अधिकारों पर आक्रमण ही अपराध माना जाता है। संवैधानिक अधिकारों पर आक्रमण अपराध न होकर गैरकानूनी होता है। सामाजिक अधिकारों का उल्लंघन न अपराध होता है न गैर कानूनी। वह तो मात्र अनैतिक ही हुआ करता है।

 

मौलिक अधिकार प्राकृतिक होने के कारण व्यक्ति को स्वत: प्राप्त हैं। कोई संविधान न तो मौलिक अधिकार देता है न ही वापस ले सकता है। संविधान तो ऐसे अधिकारों की घोषणा करके उनकी सुरक्षा की गारंटी मात्र ही दे सकता है। ये अधिकार सिर्फ चार ही होते हैं- जीने का, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का, संपत्ति का, व स्वनिर्णय का। अन्य सभी अधिकार या तो संवैधानिक हो सकते हैं या सामाजिक, किंतु मूल नहीं। मूल अधिकारों की सुरक्षा संविधान का दायित्व होता है तथा अन्य अधिकारों की सुरक्षा दायित्व न होकर कर्तव्य होता है। वैसे तो पूरी दुनिया के संविधान मूल अधिकारों की स्पष्ट व्याख्या नहीं करते क्योंकि ऐसा करते ही उनकी उच्छृंखलता सीमित होने लगती है। किंतु भारतीय संविधान ने तो इस अवधारणा को छूने का भी प्रयास नहीं किया। यदि आप भारतीय संविधान के मूल अधिकारों वाला भाग पढ़ें तो आपके लिए कई बार पढ़ने के बाद भी उसे ठीक-ठीक समझने या समझाने में दिक्कत ही होगी।

 

संपत्ति का अधिकार पहले संविधान के मूल अधिकार में शामिल था जिसे अब निकाल दिया गया है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा जीने का अधिकार संविधान के मूल अधिकारों में शामिल हैं। किंतु मूल अधिकारों का सबसे महत्तवपूर्ण भाग ‘स्व-निर्णय’ मूल अधिकारों की सूची में शामिल नहीं है। उसकी जगह धर्म मानने, संगठन बनाने और न जाने क्या-क्या बेमतलब के अधिकार उसमें डाल दिए गए हैं, जबकि ये सभी अधिकार स्व-निर्णय के ही अंतर्गत आते हैं। सबसे गलत बात यह हुई कि भारतीय संविधान ने समाज को एक गलत संदेश दिया कि गैरकानूनी कार्य अपराध भी है और अनैतिक भी। इस संदेश का दुष्परिणाम यह हुआ कि भारत का प्रत्येक व्यक्ति स्वयं को अपराधी समझकर हीन-भावना से ग्रसित हो गया।

 

भारतीय समाज में अपराधियों की अधिकतम संख्या दो प्रतिशत के आसपास ही है। अन्य लोग तो सिर्फ गैरकानूनी कार्यों तक ही सीमित रहते हैं, अपराध तक नहीं। किंतु समाज में अपराध भाव पैदा होने के कारण अपराधियों को बहुत लाभ हुआ। यह सब संविधान में मूल अधिकारों की अस्पष्ट व्याख्या के कारण हुआ। आज तो हालत यह है कि कुछ लोग शिक्षा और रोजगार तक को मूल अधिकार में शामिल करने की वकालत करते देखे जा सकते हैं।

 

संविधान का जन कल्याणकारी स्वरूप- बहुत प्राचीन काल से ही राज्य की कल्पना सिर्फ सुरक्षा और न्याय से जुड़ी रही है। सुरक्षा और न्याय राज्य का दायित्व होता है तथा जन-कल्याणकारी कार्य उसका स्वैच्छिक कर्तव्य। दायित्व और कर्तव्य बिल्कुल भिन्न विषय हैं। भारतीय संविधान ने जन-कल्याणकारी कार्यों को प्राथमिक घोषित करके दायित्वों को कमजोर कर दिया। संविधान की मूल अवधारणा के अनुसार राज्य समाज का मैनेजर होना चाहिए संरक्षक या कस्टोडियन नहीं। भारतीय संविधान ने राज्य को कस्टोडियन की भूमिका प्रदान कर दी। मालिक के नाबालिग, पागल या गंभीर रूप से बीमार होने की स्थिति में मैनेजर को कस्टोडियन के अधिकार दिए जाते हैं। इस प्रणाली के साथ-साथ यह व्यवस्था भी जुड़ी रहती है कि कोई अन्य स्वतंत्र इकाई मालिक के बालिग या स्वस्थ होने की समीक्षा करे और उसे संरक्षक से मुक्त करे।

 

भारतीय संविधान ने राज्य को संरक्षक तो नियुक्त करने की भूल की ही साथ ही साथ राज्य को यह भी अधिकार दे दिया कि वही समाज के योग्य और सक्षम होने की समीक्षा करता रहे। तिहत्तरवें संविधान संशोधन के समय राज्य ने ग्राम सभाओं को एक्जीक्यूटिव अधिकार दिए, वे भी विधायी नहीं। साथ ही राज्य ने ये एक्जीक्यूटिव अधिकार संवैधानिक रूप में न देकर कानूनी रूप में ही दिए हैं। जिसका अर्थ है कि यदि राज्य को विश्वास हो जाए कि इन अधिकारों के कारण गांवों में भ्रष्टाचार या झगड़े बढ़ रहे हैं तो राज्य इन्हें वापस भी ले सकता है। मुझे मालूम है कि दस-बीस वर्षों में राज्य को ऐसा विश्वास हो ही जाएगा।

 

इसी तरह इस कस्टोडियन अवधारणा ने सुरक्षा और न्याय के साथ-साथ जनकल्याण के अन्य कार्यों को भी राज्य के दायित्वों में शामिल कर दिया था। परिणाम हुआ कि जनकल्याण के नाम पर राज्य को समाज के अन्य सभी आर्थिक, सामाजिक अधिकारों में कटौती करते जाने की छूट मिल गई जो आज भी जारी है। सुरक्षा और न्याय जैसे उसके दायित्व तो पीछे हो गए और तंबाकू, हेल्मेट या बार बाला नियंत्रण जैसे कार्य आगे आ गए। आर्थिक न्याय के लिए श्रम सहायता को अपना आधार मानना चाहिए था किंतु श्रम सहायता की अपेक्षा शिक्षा पर व्यय को प्राथमिकता दी जाने लगी। जन-कल्याणकारी राज्य की अवधारणा ने राज्य और समाज के बीच मालिक और गुलाम या संरक्षक और संरक्षित का वातावरण बना दिया। आज तो ऐसी गुलाम भावना विकसित हो गई है कि यदि भारतीय संविधान की आलोचना की जाए तो कई गुना अधिक लोग यह भी कहने वाले मिल जासंसद का। दोष तो हमारा है जो ऐसे गलत लोगों को चुनकर संसद में भेजते हैं। ऐसे तर्कदाताओं की संख्या भी बहुत होती है और वे स्थापित व्यक्तित्व भी होते हैं। इसलिए ऐसे नासमझों को समझाना बहुत कठिन कार्य होता है।

 

भारतीय संविधान हमारी समस्याओं के समाधान में विफल ही नहीं रहा बल्कि समस्याओं के विस्तार में भी सहायक रहा। संविधान बनाने वालों की नीयत पर तो संदेह करना उचित नहीं। उनके समय भारत गुलाम था। स्वतंत्रता की जल्दबाजी थी। एक तरफ जिन्ना विभाजन की तलवार लिए खड़े थे, जिस कारण हमने विभाजन को टालने के लिए स्वतंत्रता के पूर्व कई ऐसे प्रावधान संविधान में जोड़े जो विभाजन के बाद भी उसी तरह कायम रहे और आज तक घाव कर रहे हैं। दूसरी तरफ अंबेडकर जी भी अपनी तलवार यदा-कदा दिखाते ही रहते थे जिन्हें संतुष्ट करना उस समय की मजबूरी भी थी और आवश्यकता भी। अंबेडकर जी को संतुष्ट करने में सफलता मिली। किंतु उस समय के समझौते दुख तो देंगे ही। ये समझौते तो हमारे कष्टों के मामूली कारण ही हैं। मुख्य कारण हैं- राजनीतिज्ञों के अंदर उच्छृंखलता, अपराधीकरण, भ्रष्टाचार तथा समाज से अलग एक जाति के रूप में संगठित होने का भाव। मैं तो मानता हूं कि भारतीय संविधान मानव समाज का सबसे निकृष्ट संविधान है।