10 June 2019

ऊँघते शहर के अनमने रास्ते



इस वीरान गाँव के, बियाबान बाग में
हम उठते-गिरते रहे, लड़खड़ाते रहे
साथ के लिए साख, दांव पे लगाते रहे
पर कंधा सबसे मिलाकर, कदम उठाते रहे

ऊंघते शहर के, ये अनमने रास्ते
मेरी महफ़िल में कुछ, गुनगुनाते रहे
मैं वहीं पर रुका, यूहीं ठिठका रहा
तुम बहुत देर तक, दूर जाते रहे

सोम मिलता रहा, पर जग से रीते रहे
जहर पीते रहे, और जीते रहे
यम परखता रहा, हम उसे बुलाते रहे 
मैं वहीं पर रुका, यूहीं ठिठका रहा
तुम बहुत देर तक, दूर जाते रहे
ऊंघते शहर के, ये अनमने रास्ते
मेरी महफ़िल में कुछ, गुनगुनाते रहे

खुशनुमा धुंध की, शोख़ सी बयार में
सुध बिसरती रही, होश अलसाते रहे
हम गर्म यादों से उनको जगाते रहे 
तुम सर्द आहों से उनको सुलाते रहे
मैं वहीं पर रुका, यूहीं ठिठका रहा
तुम बहुत देर तक, दूर जाते रहे
ऊंघते शहर के, ये अनमने रास्ते
मेरी महफ़िल में कुछ गुनगुनाते रहे

दाग जब भी कोई गहरा लगा
घाव जब भी कोइ दिल पर हुआ
आखिरी छोर पर एक झरोखा खुला
हवा पर सवार, हम तो तैयार हैं
उस झरोखे के पार, आते-जाते रहे
मैं वहीं पर रुका, यूहीं ठिठका रहा
तुम बहुत देर तक, दूर जाते रहे
ऊंघते शहर के, ये अनमने रास्ते
मेरी महफ़िल में कुछ, गुनगुनाते रहे

फिर कुछ ऐसा हुआ, मैं दूर तक चलता गया
इसलिये अनकही भी, अनसुनी करता गया
बिसरे वादों के, खूँखार खंजरो के निशां
चाक कलेजे के, हौसलों को चिढ़ाते रहे 
मैं वहीं पर रुका, यूहीं ठिठका रहा
तुम बहुत देर तक, दूर जाते रहे
ऊंघते शहर के, ये अनमने रास्ते
मेरी महफ़िल में कुछ, गुनगुनाते रहे.
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हर्ष कुमार लाल 
दि. 10th जून, 2019


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